28.8.12

मछली

सुना था
एक मछली 
करती है
पूरे तालाब को गंदा
देखा
एक मछली
साफ कर रही थी
पूरे तालाब की 
गंदगी




और भी होंगी 
मछलियाँ
और भी होंगे
तालाब
प्रदूषित नहीं होगा अगर
तालाब का पानी
नहीं मरेंगी मछलियाँ
इनके जीते जी
बनी रहेगी
तालाब की
खूबसूरती
मर गईं
तो नहीं बैठ पाओगे तुम
तालाब के किनारे
सुकून-औ-चैन से।
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26.8.12

ब्लॉग बगीचा, बवाल और बंदरों की कृपा।



पिछले सप्ताह फिर एक बार बंदरों की कृपा दृष्टि हुई। उस वक्त ब्लॉगवालियाँ शब्द पर ब्लॉग जगत में बवाल मचा हुआ था। अचानक से नेट कनक्शेन टूटा और  समस्या पूर्ति हुई। आज कई दिनो के बाद तार जुड़े तो पढ़ने का नहीं, लिखने का मन हो रहा है। जानता हूँ अब तक नदी में बहुत पानी बह चुका होगा। ब्लॉगरा ! ब्लॉग वालियाँ ! ब्लॉग जगत में आये ये शब्द मुझे अच्छे नहीं लगते। व्यक्तिगत आक्षेप वाले पोस्ट भी अच्छे नहीं लगते। जिन्हें अच्छे लगते हों लिखें, जिन्हें अच्छे लगते हों ऐसी पोस्टों पर कमेंट करें। मैं तो पढ़ना भी नहीं चाहता कमेंट करने की बात तो दूर की है। कभी बिना संदर्भ जाने कमेंट कर बैठता हूँ तो बाद में बड़ा अफसोस होता है। शायद यही कारण हो कि बहुत से ब्लॉगरों ने कमेंट का विकल्प बंद कर दिया या कमेंट करना ही बंद कर दिया। सभी ज्ञानी हैं इसलिये किसी को उपदेश देने का भी कोई मतलब नहीं। सिखाया, पढ़ाया, बनाया, मिट्टी के लोंदे को जाता है। जो मूर्ति गढ़ी जा चुकी है उन्हें तराशने में और भी विद्रूपता हाथ लगती है। आलोचना या प्रशंसा करने से वे और भी महिमा मंडित होते/होती हैं। मैं ऐसा प्रयास भीं नहीं करना चाहता। विचार हैं तो हैं। हो सकता है वे ही सही हों, हम ही गलत  हों ! हम यह कैसे कहें कि हम ही सही हैं ? अपनी बात बताना इसलिए जरूरी लगा कि लोग हमसे अपेक्षा न बांध लें कि हम उनका समर्थन या विरोध करेंगे। हम कुछ नहीं करने जा रहे। मुझे वाकई अपने छवि की चिंता सताती है। डरता हूँ कि कल मेरे जाने के बाद मेरे बच्चे मेरे ब्लॉग को पढ़ें तो मेरे बारे में कोई गलत छवि न बना लें। नई पीढ़ी को लेकर यह चिंता तो रहती ही है। मुझे लगता है यह चिंता करनी चाहिए। हो सकता है आपको कुछ और लगता हो और आपका लगना ही सही हो लेकिन मुझे जो लगता है वह बताना भी जरूरी है। मैं किसी का विरोध किये बिना अपनी बात रखना चाहता हूँ।

पिछली बार एक पोस्ट आई थी। जिसमे कहा गया था कि फलाने का विरोध दर्ज करें। मैने नहीं किया। विरोध भी दर्ज नहीं किया, उनके ब्लॉग को पढ़ने भी नहीं गया। कौन वक्त जाया करे ? आप कह सकते हैं कि गलत का विरोध न करने वाले कायर होते हैं। मैं कायर ही सही। मैं ऐसा ही हूँ। मुझे लगता है ध्यान न देना भी विरोध दर्ज करना है। कमेंट न करना भी विरोध दर्ज करना है। आलोचना न करना भी विरोध दर्ज करना है। हो सकता है आपको कुछ और लगता हो लेकिन मुझे लगता है पढ़ने-लिखने वाले समुदाय में उपेक्षा करना भी कड़ा विरोध दर्ज करना है।

बगीचे में कई पेड़ हैं। इनकी डालियों में पंछियों का आना जाना लगा रहता है। तेज धूप में सभी आकुल-व्याकुल होते हैं, वर्षा में सभी हर्षित। हवा चलती है तब इनकी पत्तियाँ अपने-अपने ढंग से खुशी का इजहार करती हैं। कोई बूढ़े दादा की तरह हौले-हौले सर हिलाती हैं, कोई नवयौवना की तरह झूम-झूम कर गाती हैं और कोई छोटे बच्चों की तरह जोर-जोर से तालियाँ पीटने लगती हैं। भांति-भांति के वृक्ष ! कोई छोटा, कोई बड़ा। कोई बरगद की तरह मजबूत तो कोई लताओं की तरह कमजोर मगर मैने कभी किसी वृक्ष को एक दूसरे का गला दबाते नहीं देखा ! इसलिए शहर की भीड़ भाड़ से भागकर दो घड़ी के लिए बगीचे में आकर बैठना अच्छा लगता है। क्या हम ब्लॉग जगत को ऐसा ही एक बगीचा नहीं बना सकते ?  दिनभर के काम के बाद यहाँ आयें तो पोस्ट पढ़कर एक सुखद एहसास हो ? नहीं ! तो भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। बंदरों की कृपा तो मुझ पर बनी ही रहती है। J
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20.8.12

ईद का सूरज


ईद का चाँद तो नहीं देख पाया
ईद का सूरज देखा
लगा
जैसे कह रहा हो
ईद मुबारक!

उगते-उगते
छा गया हर तरफ
जर्रे-जर्रे को 
करने लगा रौशन



चहकने लगे पंछी
सुनहरा हो गया
तालाब का पानी



चमकने लगे 
खेत-खलिहान


खिलने लगी
कलियाँ



खुश थीं
मछलियाँ भी



खिलखिलाने लगे
फूल



मैने कहा
सूरज!
तुमको भी
ईद मुबारक।

मित्रों!
आप सभी को
ईद मुबारक।

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19.8.12

प्रभात


आज
अपना प्रभात ऐसा था
आपका
इससे भी खूबसूरत हो।


18.8.12

काहे हउआ हक्का-बक्का..!


काहे हउआ हक्का-बक्का !
छाना राजा भांग-मुनक्का !

काहे चीखत हउवा चौचक
अरबों-खरबों कs घोटाला !
चिन्नी चोर गली-गली में
केहू संसद में ना जाला ।

भ्रष्टाचार में देश धंसल हौ
का दुक्की का चौका, छक्का !

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

बहती गंगा मार ले डुबकी
लगा के चंदन, जै जै बोल
दीन दुखी जे मिले अकेले
छीन के गठरी, जै जै बोल

कलियुग कs अब धर्म यही हौ
नाहीं तs खइबा तू गच्चा !

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

चिखबा ढेर तS दंगा होई
ध्यान बटी सब चंगा होई
केहू के नाहीं हौ चिंता
माई रोई, नंगा होई।

जाति-धर्म हौ तुरूप कs पत्ता
बंट जइबा जब घूमी चक्का।

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

देश प्रेम कs भाव जगल हौ
मिल जुल के तब ईद मनावा
घर में ही जे भयल पराया
दउड़ के पहिले गले लगावा।

माफी मांगा कान पकड़ के
अब गलती ना होई पक्का।

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

जब बिल्ली कs झगड़ा होई
बंदर वाला लफड़ा होई
चोरी-चोरी चीखत रहबा
डाकू चौचक तगड़ा होई।

सांपनाथ औ नागनाथ के
उलट-पुलट फिर मनबा कक्का।

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

रमुआ चीख रहल खोली में
आग लगे अइसन होली में
कहाँ से लाई ओझिया गोझिया
प्राण निकस गयल रोटी में

निर्धन क नियति में धक्का
काहे हउआ हक्का बक्का!

राजनीति दलदल हौ, डूबल
देखा केकर-केकर नइया
जेल में बंद हो गयल खुद ही
भ्रष्टाचार कs बड़ा लड़इया

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काशिका.. कठिन शब्द के अर्थ।


हक्का-बक्का=आश्चर्य-चकित।

मुनक्का=भांग की मीठी गोली जिसमे मेवा मिला रहता है।
गच्चा=धोखा।
तुरूप कs पत्ता=ताश के खेल में रंग का पत्ता सबसे शक्तिशाली होता है।

17.8.12

बाढ़ में परिंदे


 यह तेज सिंह का किला है। मैने आपको 'मई' में यहाँ की तस्वीरें दिखाई थी। अब गंगा जी बहुत बढ़ी हुई हैं। एक घाट से दूसरे घाट पर जाने का मार्ग पूरी तरह से बंद है।  आज शाम गंगा जी गया तो इस किले पर चढ़ना चाहा लेकिन यहाँ चढ़ने की अनुमति नहीं है। कुछ नवयुवक कूद-फांद कर ही यहाँ चढ़ पा रहे थे। पास के जैन मंदिर से यहाँ का नजारा लेता रहा। यह परिंदों का स्थाई ठिकाना है। आहट पाकर बीच-बीच में उड़ान भरते हैं और पूरा एक चक्कर लगा कर फिर यहीं बैठ जाते हैं। 


लीजिए, उड़ना शुरू किया। दूर गये और अब वापस आ रहे हैं।


मेरे पास से गुजर रहे हैं


फिर वहीं बैठेंगे जाकर।


लीजिए, बैठ गये चुपचाप।


यह अकेला यहाँ क्या कर रहा है !  नदी, नाव से कोई उम्मीद तो नहीं ?


या फिर जाड़े के इन दिनो की याद कर रहा हो !


नोटः फोटो में क्लिक करके देखेंगे तो तस्वीरें अच्छे से दिखेंगी। कुछ अंधेरा-अंधेरा माहौल था। :)


वजन



बचपन में 'कागज की नाव'
लड़कपन में 'ताश के महल'
जवानी में 'बालू के घर'
हमने भी बनाए हैं
इनके डूबने, गिरने या ढह जाने का दर्द
हमें भी हुआ है
राह चलते ठोकरें हमने भी खाई हैं
मगर नहीं आया
कभी कोई 'शक्तिमान'
मेरी पीठ थपथपाने
लोगों ने उड़ाया है मेरा भी मजाक
मगर नहीं आया कभी
किसी दूसरे ग्रह का प्राणी
करने मुझ पर 'जादू'
मेरे घर में भी बहुत सी मकड़ियाँ हैं
मगर नहीं काटा मुझे
कभी किसी मकड़ी ने
नहीं बनाया मुझे
'स्पाइडर मैन'

और अब 
मैं जान गया हूँ
जीवन दूसरों की शक्ति के सहारे नहीं चलता
हम जितने हल्के होते जाएंगे
उतने बिखरते चले जाएंगे 

धरती पर टिके रहने के लिए जरूरी है
वजनी होना

और मैं
यह भी जान गया हूँ
कि मनुष्य का वजनी होना
'गुरूत्वाकर्षण' के  सिद्धांत पर नहीं
बल्कि चरित्र के उस
'गुरू-आकर्षण' के सिद्धांत पर निर्भर करता है
जिसके बल पर
'इंद्र' का आसन भी
पत्ते की तरह कांपने लगता है।

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नोटः कविता पुरानी है, चित्र गूगल बाबा का।

12.8.12

मध्यमवर्गीय



वह
श्रमजीवी होता है
मगर खुद को
बुद्धिजीवी समझता है।

दशहरा-दीवाली पर
रात-रात भर जागकर
सुनता है
पत्नी के ताने
पूरी करता है
स्वप्न में
बच्चों की मुरादें
सुबह
पूछती हैं
कमरे की दीवारें...
क्यों जी!
क्यों उड़ गई है तुम्हारी रंगत
हमारी तरह?”

ईद-होली में
बार-बार देखता है
बच्चों की फटी कमीज
आर-पार हो जाती हैं उँगलियाँ
कुर्ते की जेब से

जानता है
उबड़-खाबड़ रास्तों पर
चलाते-चलाते साइकिल
खत्म हो जाती है
हवा
पंचर हो जाता है
नया ट्यूब भी।

वह
दिन रात
बहाता है पसीना
रोटी, कपड़ा, मकान, दवा और बच्चों की फीस के लिए
लड़की की शादी तो
बड़े ख्वाब पूरे होने जैसा है
जिसके बाद
चढ़ा सकता है
मज़ार पर चादर
ले सकता है
अंतिम सांस
धार्मिक त्यौहार तो
आफ़त वाले दिन होते हैं !

वह                    
ढूँढता है
आजादी के मायने
पंद्रह अगस्त के दिन
तलाशता है
मौलिक अधिकार
गणतंत्र दिवस के दिन
नोचता है
सर के बाल
उखाड़ कुछ नहीं पाता
पूछता है प्रश्न,
हे राष्ट्रपिता !
क्या यही है आजादी ?”

राह चलते
बड़बड़ाता है,
(वैसे ही जैसे
बड़बड़ाता है शेखचिल्ली
टूटने पर
सुनहरे ख्वाब)
अब नहीं होती
नेतृत्व की हत्या
अब होता है
सरे आम
आँदोलन का खून
मार्ग से
भटका दिये जाते हैं
आंदोलनकारी
ठहरा दिये जाते हैं
अपराधी !”

वह
चाव से मिलाता है
कंधे से कंधा
बुद्धिजीवियों के
हर आह्वाहन पर
मनाता है
आजादी का उत्सव
कभी-कभी
गिरा देता है
हाथ से  
दो वक्त की
रोटियाँ भी।
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