एक दिन बेचैन आत्मा सुबह-सुबह
साइकिल से कहीं जा रहा था। रास्ते में चाय की दुकान के पास ढेर सारी मोटर साइकिलें
खड़ी थीं। वहाँ बैठी कुछ चिंतित आत्माओं ने उसे देखा और अचरज से पूछा- “यह आज 'मोटर साइकिल' छोड़ कर 'साइकिल' से क्यों जा रहे हो ?” बेचैन आत्मा ने पलट कर पूछा-“तुम लोग यहाँ बैठकर क्या कर रहे
हो ?” चिंतित आत्माओं ने कहा- “डॉलर के मुकाबले रूपया रोज गिर रहा है। हम लोग देश की चिंता कर रहे
हैं।“ बेचैन आत्मा ने हँसकर कहा- “तुम लोग चिंता करो मैं गिरे रूपए को उठाने जा रहा हूँ।“
“ऐ सुनो! जियादा विद्वान मत बनो। तुम्हारे
साइकिल चलाने से रूपया नहीं उठ जायेगा।“ बेचैन आत्मा ने कहा-“सही कह रहे हो। मेरे अकेले साइकिल चलाने से रूपया नहीं उठेगा। तुम सब
लोग साथ दो तो रूपया उठ सकता है।“
चिंतित आत्माओं ने हट्टाहास किया—“हा हा हा..बढ़िया है। शायद तुमको नहीं पता। रूपया गहरे गढ्ढे में गिर
गया है। हमारे आठ दस लोगों के साइकिल चलाने से भी नहीं उठेगा।“
बेचैन आत्मा ने समझाया- जरा सोचो! जब मुझे साइकिल चलाता देखकर
तुम आठ दस
लोग साइकिल चला सकते हो तो तुम सबको देखकर कितने लोग साइकिल चलाने लगेंगे ! सप्ताह में एक दिन भी यदि पूरे
देशवासी पेट्रोल बचाने का संकल्प लें तो कितना पेट्रोल बचेगा! चिंतित आत्माएँ फिर
बैठकर चिंता करने लगीं। बेचैन आत्मा उनकी बेचैनी बढ़ा कर चलता बना।
मैने कहीं पड़ा था- “एक जंगली खरगोश हमेशा डरा रहता था। वह थोडे से आवाज या हलचल पर डरता
और कूदता था। एक बार एक बड़ी पत्ती के गिरने की ध्वनि से उसे मौत जैसा डर हुआ। एक
शरारती लोमड़ी चीखती है- ‘आकाश गिर
रहा है, भागो।’ लोमड़ी के मज़ाक को गरीब खरगोश सच समझकर जंगल में आतंक पैदा करता है
और अन्य जानवरों को भी डराता है। सभी जानवर बेतहाशा भागने लगते हैं।“
जब-जब पढ़ता हूँ रुपया गिर रहा है
तो मुझे शरारती लोमड़ी और खरगोश की कथा याद आती है। कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। क्या जंगल राज आ गया
है ? सोने की चिड़िया भी डरने लगी! अमेरिका और उसका डॉलर। ऊह! अभी कल तक उनकी कॉलर भी ढीली थी। संभले की नहीं संभले ?
मोटर साइकिल पर भागे जा रहे हैं
और चीख रहे हैं रूपया गिर रहा है! कार से चल रहे हैं और फेसबुक अपडेट
कर रहे हैं-रूपया गिर रहा है! साइकिल पर चलिए और पसीना पोछ कर
देखिये...आपकी फालतू चर्बी घट जायेगी और रूपया अपने आप संभल जायेगा। रोज नहीं,
सप्ताह में एक दिन तो साइकिल चला ही सकते हैं। पूरे देशवासी सप्ताह में एक दिन पेट्रोल
बचाने का संकल्प लें तो रूपया अपने आप संभल जायेगा। सब सरकार ही थोड़े न करेगी,
कुछ तो हमे भी करना होगा।
सरकार को भी चाहिए कि वे यातायात
के ऐसे साधन विकसित करें जो घरेलू संसाधनो से चल सकते हों। इक्का, ताँगा, रिक्शा
इन सब वाहनो को प्रोत्साहित करना चाहिए। इन साधनों में ऑटो के मुकाबले भले दो
रूपये अधिक देने पड़ें लेकिन यह शुद्ध रूप से श्रम के बदले चुकाई जाने वाली कीमत
है। ये दो रूपये डॉलर को हतोत्साहित और रूपया को मजबूत करेंगे। अब तो बैटरी वाले
रिक्शे भी आ गये हैं। दूसरे भी और साधन होंगे जिनका मुझे ज्ञान नहीं। माता-पिता को चाहिए कि आर्थिक रूप से वे चाहे
जितने संपन्न हों बच्चों को तब तक मोटर साइकिल, कार न दिलायें जब तक वे खुद स्वावलंबी
न हो जांय। 8-10 किमी का सफर बच्चे आसानी से साइकिल से तय कर सकते हैं। चार-पाँच
किमी तो हम भी साइकिल चला सकते हैं। पेट्रोल के विदेशी आयात पर जितनी निर्भरता
घटेगी रूपया उतना ही मजबूत होता जायेगा।
आपका क्या खयाल है ? तो चल रहे हैं कल से साइकिल पर ? मैं तो चला....