8.1.17

सुबह की बातें -4


शाम के शोर से 
भोर का मौन अच्छा है 
शाम महबूबा है मेरी,
भोर 
एक मासूम बच्चा है
शब्दों का खजाना था 
शाम के पास 
एक भी याद नहीं 
रात के बाद 
भोर 
बोलता कुछ नहीं 
मगर सुनता हूँ 
खुद ब खुद 
अभिव्यक्त होता है 
चहक लूँ 
मन ही मन 
पंछियों के जगने से पहले 
अभी अँधेरा है, 
जाग लूँ थोड़ा
उजाला देख लूँ 
अजोर से पहले.

वृक्षों का माथा चाट
पत्ती-पत्ती रेंगती, 
टप्प से धरती पर कूद-कूद 
गायब हो रही थीं 
शरारती ओस की बूदें! 
पँछी खामोश थे,
गेट के ताले ठंडे 
कुछ देर स्तब्ध खड़ा 
भोर को सुनता रहा 
फिर भागकर 
रजाई में दुबक गया।

जारी है 
ओस की टिप-टिप.
छाया है कोहरा
चुप हैं पँछी
गूँज रहा है
भोर का मौन

नहीं है मेरे पास
एक भी
मेऱा पढ़ाया पालतू तोता
होता भी तो
'गोपी-कृष्ण कहो' नहीं कहता
मौन हो
राधे-राधे
सुनता रहता।

उठो न! 
सुनो न! 
धरती पर जल तरंग बजा रही हैं 
ओस की बूँदें!!! 
सुन रहे हैं पँछी 
दुबक कर 
अपने-अपने घोंसलों में
मौन मुखर है 
चहुँ ओर
आओ! 
आँखें बंद कर बैठो यहाँ, 
शाल ओढ़कर 
ना ना 
कुछ ना कहो।
भोर के अजोर तक 
सुनती रहो...
कितना मधुर है मौन का संगीत! 
इन पंछियों की तरह सशंकित होकर मत देखो! 
ऑंखें बंद कर विश्वास से सुनो..
ऐसे ही होता है 
अन्धकार के बाद 
रोज सबेरा।
........

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