8.1.17

यू पी रोडवेज की बस यात्राएँ

कोहरा घना है। सड़क पर चमक रही हैं वाहनों की आँखें। छोटे कस्बे में रुकती है बस। दिखते हैं शाल, स्वेटर, मफ़लर या कम्बल ओढ़े आम आदमी। सुनाई पड़ती है आग तापते, चाय की चुस्की लेते या खैनी रगड़ते लोगों की हँसी-ठिठोली। एक बैल वाली 5-6 गाड़ियों का काफिला देखा। बोरा या कथरी ओढ़े ग्रामीण हाँक रहे थे बैल। जा रहे होंगे मंडी या लौट रहे होंगे समान उतारकर मंडी से।
ठंडा देख आज बैठ गए रहिशों की तरह ए. सी. बस में। यहाँ बैठ ग्रामीण अधिक परेशान दिखाई देते हैं! यू. पी. रोडवेज की ए. सी. बस है। सामान्य बसों का किराया 61 रूपया तो इसका 155. बहुत बड़ी खाई है आम और ख़ास में! इसे पाटना सम्भव नहीं दिखता। इस खाई को पाटने की आम जन की इच्छा, ख़ास बनते ही गुम हो जाती है।
इस बस में मिनरल वाटर भी मिलता है। आगे बैठी लड़की का बॉटल दो बार गिर चुका है। गिरकर बॉटल प्लास्टिक की कालीन पर बायें से दायें, दायें से बायें बार-बार लहराता रहा। लड़की उसे देखती रही। फाइनली उसने झुककर उठा ही लिया। आस-पास बैठे यात्रियों का कौतूहल शांत हुआ और वे पहले की तरह गरदन सीट से सटा कर बैठ गये।
ए.सी ट्रेन की बोगी की तरह ए.सी रोडवेज के यात्री भी धीर-गंभीर हो बैठते हैं। हँसने का समय और स्थान निर्धारित रहता है। आम आदमी की तरह सस्ती नहीं होती इनकी हँसी।
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कोहरा छंटा नहीं है। आराम-आराम से चल रही है अपनी बस। जल रही हैं सड़क की दूसरी पटरी से आते वाहनों की आँखें। बाबतपुर हवाई अड्डे से पहले की सड़क पर काम चल रहा है। ओवर ब्रिज बन रहा है जहॉं से गुजरेगी रिंग रोड। हो रहे हैं विकास के काम।
अन्तरिक्ष यात्री की तरह लग रहे हैं जैकेट, हेलमेट पहने मोटर साइकिल चलाते लोग। इन्हें देख धोखा हुआ कि देश चाँद पर पहुँच गया है क्या! उदास चेहरा लिए गुजरा मफ़लर से कान बाँधे, दोनों हैंडिल में बड़े-बड़े झोले लटकाये, झुककर साइकिल चलाता आदमी। इसे देख भरम जाता रहा। हम उसी भारत में हैं जहां पैदा हुये थे।
एक किशोर दिखा। बिना मफ़लर लगाये, कंधे के साथ सर भी बायें-दायें झटकते, गुनगुनाते, मटकते हुए जा रहा था। ग्रामीण इलाके का है, जाड़े के कारण स्कूल बंदी का मजा ले रहा है। शहर के छोरे तो मम्मी की गोदी में सो रहे होंगे अभी। एक साइकिल चलाती दो बहनें दिखीं। पीछे कैरियर में छोटी थी, बड़ी साइकिल चला रही थी।
और भी बहुत कुछ दिखा जो आप हमेशा देखते हैं। मैंने कुछ नया नहीँ देखा। कोहरे के कारण लेट चल रही है ट्रेन। आज जिंदगी सड़क पर है।
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यू पी रोडवेज की नई बस है। इसमें गाना भी बजता है! स्पीकर लाउड है। ड्राइवर, कंडक्टर को शायद पहली बार लाउड स्पीकर वाली बस मिली है। फुल्ल भैल्यूम में सबसे बेकार वाला गाना बज रहा है। मैंने हल्ला मचाया तो ड्राइवर ने बंद ही कर दिया। सभी यात्री खुश हो गये-हाँ, हाँ बंद कर दो। मुझे एहसास हुआ लोग शान्ति चाहते हैं लेकिन इसके लिये भी विरोध नहीं कर पाते। बिना माँगे कुछ नहीं मिलता, खामोशी भी नहीं।
अब बस फाइनली रोडवेज से बाहर निकल कर सड़क पर दौड़ने लगी। हल्की-हल्की उछल रही है। अभी शहर है, शहर से बाहर निकलेगी तो पेट भर उछलेगी। इतना भी उछल सकती है कि मोबाइल छूट जाये हाथ से और लिखा हुआ पोस्ट ही न हो।
टिकट बोलिये भाई, टिकट! लिखने में कंडक्टर डिस्टर्ब कर रहा है। बोलिये भाई! मैंने बोल दिया-टिकट! और लिखता रहा। कंडक्टर मुझसे शरीफ है। प्यार से फिर बोला-टिकट भाई! कटा ही लेता हूँ टिकट। इतने शरीफ कंडक्टर कहाँ मिलते हैं!
बस अब शहर से बाहर निकल रही है। खुशी से उछल रही है। एक बार बाहर झाँकता हूँ, कन्फर्म करता हूँ, जौनपुर ही जा रही है या कहीं इलाहाबाद वाली में बैठ गया! रस्ता जाना पहचाना है। जौनपुर ही जा रही है। कितना आसान है सही और गलत रास्ते को पहचानना! जाना पहचाना है तो सही, अनजाना है तो गलत। सही गलत रास्ते का यह फर्क वास्तविक जीवन में भी कर पाते तो कितना अच्छा होता! मंजिल श्योर-शाट मिल ही जाती। मगर हाय! ऐसा होता नहीं। भगवान का कंडक्टर यमराज जब बिना पूछे जिंदगी का टिकट काट देता है तब समझ में आता है कि जिंदगी भर जिस रास्ते पर चले वो तो गलत था!
सफर में ऐसे बहुत से यात्री मिलते हैं जो गलत #ट्रेन में बैठ जाते हैं। रोज के यात्री उन्हें सही रास्ता दिखाते हैं। कुछ बात मान कर अगले स्टेशन पर उतर जाते हैं और लौटकर सही ट्रेन पकड़ लेते हैं, कुछ टी.टी. से कन्फर्म करने जाते हैं। टी.टी. हड़काते है-आप विदाउट टिकट हैं, पहले फाइन भरिये! असल जिंदगी में भी यही होता है। सही रास्ता दिखाने वाले मिलते हैं मगर हम अपने मन से ही कन्फर्म करते हैं और मन की ही करते चले जाते हैं। कई बार फाइन भरते हैं मगर अंत तक नहीं सुधरते। अंत में जब यम सवार हो जाता है सर पर और कहता है-टिकट बोलिये,टिकट! तब जा कर होश आता है।
अब बस खुशी के मारे अधिक उछल रही है। मेऱा मतलब शहर से बहुत बाहर निकल चुकी है। एक दिन ऐसा भी आयेगा जब रँगी-पुती गढ्ढा मुक्त सड़क की होर्डिंग नहीं दिखेगी और सड़क वास्तव में गढ्ढा मुक्त होगी। खूब हो रहे हैं यू पी में विकास के काम।
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आराम-आराम से यूपी रोडवेज की बस पकड़ लिये हैं। पुराना गाना धीरे-धीरे बज रहा है। ड्राइवर समझदार लगता है। कभी कंडक्टर समझदार मिलता है , कभी ड्राइवर। दफ्तर में जैसे कभी अधिकारी समझदार मिलते हैं, कभी कर्मचारी। दोनों समझदार, दयावान मिल जांय, यह किस्मत की बात है।
हवा में आज भी ठंड है। अपनी बस खुशी-खुशी, उछल-उछल कर चल रही है। मैं दोनों हाथों से मोबाइल पकड़,संभल-संभल कर लिख रहा हूँ। माननीय अखिलेश जी के जमाने की नई बस है। अभी इसके शीशे पूरी तरह से बंद हो जाते हैं। ठंडी हवा भीतर नहीं आ रही। बाहर सरसों के फूलों से छेड़खानी कर रही है। अज्ञेय जी ने इन्हीं सरसों के खेतों को देखकर शेखर एक जीवनी में लिखा था-बाड़े पर पोस्ते, खेत फुली कुसुम्मी। पीली चोली वाली री! दे जा एक चुम्मी!
नया साल अभी शुरू हुआ है। अभी इसने नये सवाल नहीं उठाये। अभी उलझी है पुराने सवालों में। नये सवाल आने से पहले के पलों का भरपूर आनंद लीजिये। शेष तो रोज की दिनचर्या है, जैसे जीते थे, वैसे जीयेंगे। शुभ दिन।

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