17.12.17

लोहे का घर-33

भण्डारी स्टेशन जौनपुर के प्लेटफार्म नंबर 1 पर एक ट्रेन दुर्ग-नौतनवां 18201आधे घंटे से अधिक समय से खड़ी है। दुर्ग से आई है और शाहगंज आजमगढ़ होते हुए गोरखपुर नौतनवां जाना है। इसके परेशान यात्री गोल बनाकर स्टेशन मास्टर के कमरे के बाहर खड़े हैं। स्टेशन मास्टर यहां नहीं बैठता। लोग कह रहे हैं..गार्ड भाग गया! स्टेशन मास्टर को फोन किया, वो कह रहा है..15 मिनट में कोई व्यवस्था करते हैं। जितने लोग उतनी बातें। कोई कह रहा है..गार्ड आएगा तो ड्राइवर भाग जायेगा! स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में है।

एनाउंस हो गया.. गाड़ी चलने को तैयार है। सिंगनल हो गया। हॉर्न बज गया। भीड़ अपने अपने डिब्बे में चढ़ी। ट्रेन चल दी। कोलाहल शांत हुआ। अब प्लेटफार्म में कम लोग शेष रह गए हैं। एक ट्रेन की सकुशल विदाई हुई है प्लेटफार्म से। एक लड़की की विदाई के बाद शादी के लॉन जैसा सन्नाटा पसरा है चारों तरफ।
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भण्डारी पर भोले की आरती खतम हुई। यूं तो हांफते-डांफते बिफोर आ गई लेकिन आरती से चूक गई गोदिया। आजकल जाड़े में आरती का समय बिफोर हो गया है। भोग भी मौसम और सुविधा के हिसाब से मिलता है भगवान को!

राइट टाइम चली है गोदिया। चलाने वालों की कृपा बनी रहे तो यही ट्रेन है जो सही समय पर चलती है। अक्सर भीड़ भी नहीं होती लेकिन आज भीड़ है। मौसम के हिसाब से अब लोग शाम ढलते ही बर्थ खोल कर बिस्तर बिछा लेते हैं। चाहे जिस ट्रेन से लौटें दो चार रोज के यात्री मिल ही जाते हैं।

एक बच्चा रो रहा है। एक लड़का मोबाइल हाथों में लिए सो रहा है। एक बुजुर्ग खर्राटे भर रहे हैं। रोते बच्चे को थपकी दे कर घुमा फिरा कर मां की गोदी में लिटा कर बगल में बैठा है बच्चे का बाप। उसके बस का नहीं था चुप कराना। मां शाल ओढ़ाकर करा रही हैं स्तनपान। अब चुप हो, सोने जा रहा है बच्चा। सामने बैठे अनवरत बोलते यात्री से हाथ जोड़ कर निवेदन कर रहा है निरीह पति..'प्लीज चुप हो जाइए! फिर जग जाएगा तो जल्दी नहीं उठेगा बच्चा।' बोलने वाला दयालू निकला! तुरन्त चुप हो गया। इस दर्द से पक्का यह भी गुजरा है, कभी न कभी।

ट्रेन हवा से बातें कर रही है। एक पुल गुजरा है। पुल के थरथराने के साथ घनघनाई है पूरी ट्रेन भी। दर्द कभी एक तरफा नहीं उठता। बस तटस्थ हो दोनों को महसूस करने की बात है।
बच्चा सो रहा है। कितना सुकून है मां की गोद में! न पुल के थरथराने से न ट्रेन के घनघनाने से। मां की गोद से बच्चा नहीं उठता, किसी के शोर मचाने से।

लोहे के इस घर में कुछ दूर दूसरा बच्चा भी है। वह तोतली जुबान वाला चंचल बच्चा है। ऊपर बर्थ में लेट कर लोहे के रौड को हाथों से पकड़े, दीवार में पैर पटक रहा है। मुंह से तोतली जुबान में कुछ न कुछ बोले जा रहा है। ट्रेन किसी छोटे स्टेशन से गुजरते वक्त बदलती है पटरियां तो झूला झुलाते हुए चलती है। बच्चा झूला झूलते हुए मजे ले रहा है। मज़ा का क्या है! बस आना चाहिए। जितना जमाने के दर्द और चिन्ता से मुक्त है प्राणी, उतना सरल है मज़ा लेना। किसी ने खूब कहा है..

नींद तो दर्द के बिस्तर में भी आ सकती है
तेरे बाहों में सर हो, यह जरूरी तो नहीं।।


गहरी नींद सो रहा है एक रोज का यात्री। बनारस में इसे जगाना पड़ेगा वरना हो सकता है आज घर न पहुंच पाए।
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लोहे के घर में खाली-खाली बर्थ पर आराम से लेटे हैं हम और बैंक के मनीअर्जर साहब। ऊपर से लेकर सामने की लोअर अपर बर्थ में कहीं कोई नहीं है। पूरी बोगी खाली नहीं है, दूसरे यात्री हैं लेकिन अपना इलाका सन्नाटेदार है।

यह किसान है, अपने साथ के साथी इसे छोड़ गोदिया  पकड़ने गए हैं। शाम के ८ बजे के आस पास जौनपुर के भण्डारी स्टेशन पर जब दोनों ट्रेनें अलग अलग प्लेटफार्म पर साथ साथ खड़ी होती हैं तो बनारस जाने वाले यात्रियों में अजीब सा ऊहापोह हो जाता है। इसे पकड़ें या उसे पकड़ें, मंजिल तक कौन पहुंचाएगी पहले? २० मिनट पहले पहुंचने के लिए लोग कभी इधर तो कभी उधर भागते फिरते हैं। उनके जाने से हमें पूरा इलाका खाली मिल गया। गोदिया बनारस तक नॉन स्टॉप है और इसे दो स्टेशन रुकना है।

अपनी #ट्रेन पहले चली मगर एक स्टेशन चल कर रुक गई है। लगता है यहीं क्रास कराएगी गोदिया को। निर्णय गलत होने का मातम मनाएं या फिर खाली बर्थ मिलने का जश्न!

अरे! यही चल दी!!! निर्णय भी सही और खाली बर्थ का सुख भी..किस्मत साथ चल रही है। #भारतीय_रेल है, कब क्या करेगी कुछ भी सटीक नहीं कहा जा सकता। प्लेटफार्म पर आओ तो केवल ट्रेन का नंबर पढ़कर मत बैठ जाना, यह भी देख लो कि रेल का इंजन किस ओर है! पता चला उत्तर जाने के बजाय दक्खिन चले गए! सोचा अप वाली है, १२ घंटे लेट डाउन वाली निकली!!! ट्रेन के डिब्बों में दोनों नंबर लिखे होते हैं।

एक स्टेशन बाद फिर रुकी! मनीअर्जर साहब चौंक कर उठे। हाय! यहां क्यों रोक दी? यहां तो इसका स्टॉपेज नहीं है!

यह कहां लिखा है कि ट्रेन स्टॉपेज पर ही रुकेगी? रेलवे ने कोई प्रमाण पत्र जारी किया है क्या?

मनीअर्जर साहेब फिर दुखी हुए। लगता हैं यहां क्रास कराएगी गोदिया को। बड़ी गलती हुई। गोदिया ही पकड़नी चाहिए थी। हम भी हां हूं कर अफसोस मानते हुए लिखे जा रहे हैं। तकलीफ इस बात की नहीं है कि हम लेट हो रहे हैं, तकलीफ यह है कि वो हमसे पहले घर पहुंच जाएंगे। हमारा निर्णय गलत उनका सही हो जाएगा।

एक लम्बा हारन सुनाई पड़ा। अपनी ट्रेन फिर चल दी! हम फिर खुश हो गए। अपनी ट्रेन फिर अगले स्टेशन पर रुकी और फिर चल दी! हम फिर खुश हो गए। अपने दोनों स्टॉपेज से निकल गई किसान। अब गोदिया इसे नहीं पाएगी। वे अब पीछे ही रहेंगे, हम पहले पहुंचेंगे बनारस।

सफ़र करने वाले पल-पल खुश होने और उदास होने के बहाने ढूंढ लेते हैं। निर्णय सही रहा तो खुश होते हैं, निर्णय गलत रहा तो अफसोस करते हैं। साथियों को कहते सुना है..इतनी मेहनत पढ़ाई के समय कर लिए होते तो आज हम भी अफसर होते। सफ़र के वक़्त जो अच्छा लगता है, हम अक्सर उसी रास्ते पर चल पड़ते हैं। गाड़ी जब तक पटरी पर चलती रहती है खुश होते रहते हैं। जब गाड़ी पटरी से उतरने लगती है तब यही कहना पड़ता है...

लक्ष्य तो दृढ़ थे मेरे प्रारंभ से ही किन्तु हर घटना अचानक घट गई..

गोदिया में बैठे यात्री अभी यही कह रहे होंगे मगर भारतीय रेल और किस्मत कब पलटी खाए और हम फिर पिछड़ जाएं, कुछ भी निर्धारित नहीं है।

अपनी ट्रेन फिर किसी स्टेशन पर रुकी है और मुझे ग्रीन सिगनल की प्रतीक्षा है।

सूर्यदेव निकल रहे हैं और पटरी पर चल रही है अपनी गाड़ी। यह वाराणसी-सुल्तानपुर पैसिंजर है जो कैंट से ठीक ७ बजे छूट जाती है और ८.२० में पहुंचा देती है जौनपुर। पहले मनमर्जी चलती थी, रोज के यात्रियों ने प्रभु जी के दरबार में कई प्रार्थना पत्र डाले और प्रभु कृपा से यह निर्धारत समय पर चलने लगी।

आम आदमी सही समय पर चलने वाली पैसिंजर पा कर भी खुश हो जाता है, उसे बुलेट की कोई आकांछा नहीं है। पैसिंजर ट्रेन लोहे का वह घर है जिसमें आम के साथ गरीब भी रहते हैं। इस घर में अमीर, गरीब और मद्यम सभी घुलमिल कर एक वर्गीय हो जाते हैं। यहां उच्च और निम्न के साथ कोई भेदभाव नहीं रहता। भारत में समाजवाद पैसिंजर ट्रेन में ही देखने को मिलता है।जब एक्सप्रेस छांटा(धोखा) देती है तो सभी के लिए यह जीवन रेखा(लाइफ लाइन) बन जाती है।

यह अपने हिसाब से एक घंटे पहले चलती है। अनुकूल समय २०४९ फॉट्टी नाइन का है लेकिन साथी कहते हैं अब वह स्वीट पॉयजन (मीठा जहर) हो चुकी है! जब से मुगल सराय का नाम दीन दयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन होने की घोषणा हुई तब से लेट चलने लगी! हावड़ा से चलती है और वाराणसी से १८ किमी दूर मुगल सराय तक लगभग रोज सही समय ७.३० तक आ जाती है लेकिन वाराणसी कैंट अपने निर्धारित समय ८.२५ पर नहीं आ पाती। १८ किमी की दूरी तय करने में इसे एक घंटे से अधिक का समय क्यों लगता है? यह रोज के यात्रियों के लिए एक अनसुलझी पहेली है जिसे साथी प्रायः ट्रेन की प्रतीक्षा में सुलझाते पाए जाते हैं।

ऐसा नहीं कि #रेलवे अपनी पटरी से उतर गई है। इधर खूब काम हुए हैं। पटरियों की मरम्मत से लेकर प्लेटफार्म के नवीनीकारण तक कई काम हैं जो अपने पूर्वांचल में होते दिखते हैं। सभी का हाल तो नहीं पता लेकिन कैंट स्टेशन का तो काया पलट हो रहा है। नई स्वचालित सीढ़ियों से लेकर लिफ्ट तक लग चुके हैं। प्लेटफार्म के पत्थर बदले जा चुके हैं। स्थाई और टिकाऊ काम खूब हो रहे हैं। सिवाय ट्रेन को निर्धारित समय पर चलाने के शेष सभी काम हो रहे हैं। ट्रेनें निर्धारित समय पर चलने लगे तो फिर भारतीय रेल से किसी को कोई शिकायत न रहे।

इस दिशा में एक अच्छी पहल यह देखने को मिल रही है कि ट्रेनें कैंसिल हो रही हैं। यह सही है। लेट चलाने से अच्छा है ट्रेन चलाया ही न जाय। जितनी क्षमता हो उतनी ही ट्रेन चले, शेष निरस्त कर दी जाय। सभी का समय मूल्यवान होता है। ट्रेन नहीं रहेगी तो जनता कोई दूसरा विकल्प ढूंढ लेगी। जैसे आज फोट्टी निरस्त है तो हमने पैसिंजर पकड़ लिया।
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का पकड़ला ?
टाटा पकड़ली!
टाटा जौनपुर में ना रुकत
रुक ग य ल।


शाम के समय बनारस जाने वाले रोज के यात्री नॉन स्टॉप #ट्रेन पकड़ कर खुश हैं। जफराबाद स्टेशन पर भी इसकी चाल धीमी है, यहां से भी चढ़ गए लोग।

टाटा का क्रेज है रोज के यात्रियों में। सुबह बनारस से जौनपुर आते समय भी सप्ताह में दो दिन (मंगलवार और बृहस्पति वार) इसके दर्शन होते हैं। सुपर फास्ट है तो मात्र ४० मिनट में जौनपुर पहुंचा देती है। जौनपुर में इसका स्टापेज नहीं है लेकिन एक स्टेशन पहले जफराबाद में धीमी होती है। रोज के यात्री चढ़ते हैं और जफराबाद में चलती ट्रेन से कूद-कूद कर उतरते हैं। पिछले साल एक साथी कूदने के चक्कर में पटरियों और प्लेटफार्म के बीच फंस कर स्वर्गवासी हो चुके हैं। कुछ दिनों तक तो लोग दुर्घटना से व्यथित हुए फिर सब भूल भाल कर इस पर चढ़ने लगे। समय से दफ्तर पहुंचने की चिंता में जान हथेली पर लेकर टाटा में चढ़ते हैं। रोज के यात्रियों में एक स्लोगन काफी चर्चित है...टाटा के दीवाने कभी कम न होंगे, अफसोस! हम न होंगे।

आज शाम के समय टाटा अकस्मात मिल गई! लेट थी और आगे रेड सिगनल था। इसे रुकना ही था। बनारस में तो इसका स्टॉपेज है ही। सुपर फास्ट है तो इसकी चाल भी मस्त है। लोग खुश हैं कि आज जल्दी घर पहुंच जाएंगे।

ट्रेन में जहां हम बैठे हैं वहां प्लास्टिक के तीन कूपे रखे हैं। पहली बार देखा तो अलीबाबा और चालीस चोर वाले कूपे लगे! मैंने पूछा.. बाकी ३७ कूपे कहां हैं? वो बोला..तीन ही हैं। तेल भरे हो? (कैसे पूछता कि बस तीन चोर!) वो झुंझला कर बोला..तेल नहीं घरेलू सामान है। पहली बार समझ में आया कि कूपे में घरेलू सामान भी हो सकता है!

अगल बगल से समझ में न आने वाले बंगाली शब्द सुनाई पड़ रहे हैं। दो शब्द समझ में आए..राहुल और मोदी। मैं समझ गया लोहे के घर के यात्री देश की चिंता कर रहे हैं। देश की चिंता के लिए ट्रेन से बढ़िया कोई दूसरा स्थान नहीं होता। पल्ले से समय भी खर्च नहीं होता और देश की चिंता भी हो जाती है।

देश की चिंता शराबी भी करते हैं। उधर मुर्गा पक रहा है, इधर देश की चिंता हो रही है। खाली समय के लिए देश की चिंता बढ़िया काम है। उधर मुर्गा पक कर तैयार हुआ, इधर देश की चिंता खलास! पेट भरा और चल दिए अपने रस्ते। शाम के समय शराबियों के बीच एक संवाद होता है..आज देश क चिंता न होई?

यह ट्रेन है। यहां लोग बिहार के नीतीश और पश्चिम बंगाल की ममता से लेकर मोदी राहुल तक की कमियां, खूबियां गिना रहे हैं। नीतीश के नशा बन्दी का समर्थन कर रहे हैं और गुजरात में मोदी जी को जीतने वाला बता रहे हैं। लोगों की इस बात में सहमती है कि मोदी जी ने चुनाव के समय प्रधान मंत्री की गरिमा को कम किया है। इनकी बातों से पता चल रहा है कि प्रधान मंत्री के पद की गरिमा प्रधान मंत्री की कुर्सी से बड़ी होती है।

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